Evolution of Astronomy (H)

इस कड़ी के माध्यम से खगोलीय ज्ञान की विकास यात्रा को समझाया गया है। हमारे मन में अनेक बार ऐसे सवाल उठते हैं कि एक साल में केवल बारह महीनें ही क्यों होते हैं? हर महीने में निश्चित दिन ही क्यों होते हैं? भले ही आज हमें ये प्रश्न आसान लगते हों लेकिन हमारे पूर्वजों के लिए यह काफी कठिन होते हैं। मानव ने खगोलीय पिंडों में दोहराव की पद्धति को पहचान कर समय गणना आरंभ की थी। चंद्रमा की घटती-बढ़ती कलाओं को देख कर पूर्णिमा और अमावस्या नाम दिए गए। चन्द्रमा के जिस नक्षत्र के पास पूर्णिमा के दिन देखा जाता, उसी नक्षत्र पर उस महीने का नाम रखा जाता। उदाहरण के लिए चेत्र महीने का नाम चेत्रा नक्षत्र के नाम पर रखा गया है। पृथ्वी को सूर्य का एक चक्कर पूरा करने में लगभग 365 दिन लगते हैं जिसे एक वर्ष माना जाता है। इस प्रकार अनेक सभ्यताओं में चंद्रमा और सूर्य पर आधारित कैलेण्डरों का विकास हुआ। भारतीय खगोलविद्या का उल्लेख 4000 वर्ष पहले रचे ऋग्वेद में मिलता है। उसमें 27 नक्षत्रों तथा चंद्रमा की कलाओं का वर्णन मिलता है। 500 ईसवीं तक खगोल शास्त्र भारतीय अध्ययन का महत्वपूर्ण अंग बन चुका था। इस दौर में आर्यभट्ट का नाम प्रमुख है। आर्यभट्ट ने ग्रहणों से जुड़ी मिथ्या धारणाओं को नकारा। 598 ईसवीं में ब्रहागुप्त ने ब्रहाफुट सिद्धांत नामक पुस्तक में तारों तथा ग्रहों की स्थिति, दिन और रात्रि की नियमित आवाजाही, ग्रहणों के बारे में काफी सूचनाएं दीं। उन्होंने खगोलविज्ञान से जुड़े कठिन प्रश्नों को हल करने में बीजगणित का उपयोग किया। 8वीं शताब्दी में लल्ला नामक खगोलविज्ञानी ने 12 यंत्रों के उपयोग द्वारा समय, कोण, दूरियां और ऊंचाईयों को नापा। 18वीं सदी में सवाय जयसिंह ने आकाश के निरीक्षण के लिए ईंट-पत्थरों से 5 वेधशालाओं का निर्माण कराया। इन वेधशालाओं को जंतर-मंतर के नाम से जाना जाता है। इनमें स्थापित यंत्रों को सम्राट यंत्र, जयप्रकाश यंत्र, राम यंत्र और मिश्र यंत्र के नाम से जाना जाता है। पहले जंतर-मंतर का निर्माण दिल्ली में 1721 में हुआ। जयपुर जंतर-मंतर दुनिया की सबसे बड़ी ईंट-पत्थरों से बनी खगोलीय वेधशाला है। आज आधुनिक भारतीय वेधशालाओं में विश्वस्तरीय शोध कार्य हो रहे है।

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